गाजीपुर। ( प्रेम शंकर मिश्र) । यू तो सरकार द्वारा सुविधाओं के तमाम आंकड़े प्रस्तुत किये जाते हैं परन्तु जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां करती है एक व्यूरोचीफ के आंखों से आंसू जब छलकता है तो निष्चित ही सरकार और समाज दोनों के लिए हानिकारक होता है व्यूरोचीफ ऋषिकेश पाण्डेय के दर्द का अंश उनके फेसबुक वाल से।शायद सरकार की कुम्भकर्णी नींद जिससे खुल जाये। इन्होने अपनी व्यथा अपने फेसबुक वाल पर शेयर किया है,जिसे हूबहू प्रकाशित किया जा रहा है :
कल मेरा जन्मदिन,बारह दिनों से घेरी है मौत
महोदय/महोदया,
जिला चिकित्सालय मऊ में 28.8.2021को कोविड की दूसरी डोज लेने के बाद तबीयत बिगङ गयी।तीस अगस्त को पस्त होने के बाद चिकनपाक्स(चेचक बङी माता) निकल आयीं।पूरे शरीर पर बङे-बङे फफोले।मतलब अंगारों पर चलने से भी ज्यादा खतरनाक।मुंह,पेट,पीठ,हाथ-पांव,तारू,तलवे कहने का मतलब शरीर का कोई अंग नहीं, जहाँ फफोले न हों।उठना,सोना,खाना,पीना यहाँ तक कि करवटें बदलना सब दुश्वार हो गया है।आज बारह दिन हो गये।उत्तर प्रदेश सरकार की सूची में निःशुल्क चिकित्सा सुविधा पाने के लिए पात्र भी हूँ।शासन ने मुझे मान्यता प्राप्त पत्रकार का कार्ड भी दे रखा है।इसके बावजूद एक अदद सरकारी गोली को तरस रहा हूँ और कार्ड “सियरा का सट्टा” की कहावत ही चरितार्थ कर रहा है। कल 10सितम्बर को मेरा जन्मदिन है और आज मैं 12दिनों से असहनीय कष्ट झेलते हुए यह वेदना इसलिए लिखना जरूरी समझा कि आखिर एक मान्यता प्राप्त पत्रकार को मिलने वाली शासकीय सुविधाएं किस दिन रात के लिए बनी हैं।आंखों में आंसुओं का सैलाब लिए यह उल्लेख करना जरूरी है कि “जब करकता है तभी ढरकता है।वरना,यह मैसेज लिखते वक्त आंसुओं की बूंदे मोबाइल की स्क्रीन पर यूँ ही न टपक जातीं।
अब तक तो दुष्यंत कुमार की तरह ” हाथों पर अंगारे लिए सोच रहा था,कोई मुझे अंगारों की तासीर बता दे”सोच रहा था।लेकिन,अब पानी नाक से ऊपर की ओर बढ़ने लगा है।शासन-प्रशासन तक व्यवस्थाओं की हकीक़त पहुंचाने से अगर हम चूके तो कहीं चंद दिनों में कफन में लिपटी शरीर किसी घाट के किनारे मुर्दों की कतार में जाकर शामिल न हो जाये।मैंने अपने आपको कभी मुर्दा नहीं समझा।अत्याचार,अन्याय के विरुद्ध संघर्ष की हमारी एक पहचान रही है।इसलिए जनपद मऊ के पत्रकारिता जगत के इतिहास में मुझ ऋषिकेश पाण्डेय का नाम “पत्धर की लकीर” की तरह अमिट रूप से दर्ज है।लोग मेरी सनसनीखेज, निष्पक्ष खबरों के कायल रहते थे।लेकिन,उन्हें क्या पता कि मैं आज जिन्दगी और मौत के बीच सिर्फ एक तमाशा बनकर रह गया हूँ।इस बीच जिन लोगों ने मुझे व्हाट्सऐप मैसेज किये।जवाब न दे पाने पर वे भी नाराज़ ही होंगे।मगर,मुझे यकीन है कि यह मैसेज पाकर उनकी नाराजगी जरूर दूर हो जाएगी।जीवन है तो सुख-दुःख आते-जाते रहेंगे।क्योंकि जीवन को सुख-दुख का संगम जो कहा गया है।यह मैसेज सिर्फ अपने तक सीमित न रखें।प्लीज इसे शासन-प्रशासन तक पहुंचाने में भी मदद करें।यह वक्त मेरे शब्दों की लङियों को एक-एक कर पढने का नहीं है।यह वक्त मानवीय संवेदनाओं की चीखती पुकार को अविलम्ब उचित प्लेटफॉर्म पर पहुंचाने का है।…तो देर किस बात की! मैंने अब तक हर जरुरतमंद की आवाज़ को शासन-प्रशासन तक पहुंचाने का काम किया है।मेरी आवाज़ को आप समाज और शासन-प्रशासन तक पहुंचाने में मदद कीजिये।फारवर्ड कीजिये इसे ताकि एक मान्यता प्राप्त पत्रकार को मिलने वाली शासकीय सुविधाएं मुझ पत्रकार को समय रहते प्राप्त हो सकें।आपका-ऋषिकेश पाण्डेय, ब्यूरोचीफ “आज” हिन्दी दैनिक,जनपद मऊ