महंत जी के पुण्य स्मृति को नमन
कमल किशोर
उत्तर भारत के साढ़े चार सौ वर्ष प्रचीन निर्गुनिया सन्त परम्परा की महत्वपूर्ण कड़ी सिद्धपीठ भुड़कुड़ा से जुड़ी है। आचार्य रजनीश ने यहाँ के सन्तों द्वारा विरचित पदों की विस्तार से व्याख्या की है, जो झरत दसहुँ दिस मोती, गुरु परताप साधु की संगत, बिग्सयो कमल फूल्यो काया बन, अजहूँ चेत गंवार, सपना यह संसार जैसी पुस्तकों के रूप में संकलित है। साहित्य और अध्यात्म के प्रति अभिरुचि रखने वाले लोगों के लिए यह स्थान विशेष महत्व वाला है। यहाँ के दसवें पीठाधीश्वर श्री महन्थ रामाश्रय दास को स्थूल शरीर का त्याग कर ब्रह्मलीन हुए सोलह वर्ष बीत गए। 14 मई उनके महाप्रयाण या ब्रह्मलीन होने की तिथि है। भूख से भटकते हुए बालक रामाश्रय दास का आगमन भुड़कुड़ा मठ में सन 1934 के आस पास हुआ। उस समय यही कोई चौदह पन्द्रह वर्ष की अवस्था रही होगी। यहाँ आगमन के बाद बूला-गुलाल-भीखा की तपस्थली से ऐसा नेह जुड़ा कि कुल, गोत्र, गांव, जंवार, परिवार सब पीछे छूट गए और मन रम गया फकीरी में।
“गुरु समाना शिष्य में /शिष्य ने कर लिया नेह/बिलगाए बिलगे नहीं /एक प्राण दुई देह “
फिर क्या था, तत्कालीन महन्थ श्री रामबरन दास जी से दीक्षा लेकर विधिवत सन्यास आश्रम में प्रवेश ले लिया और सन 1969 में मठ के महन्थ की गद्दी पर आसीन हुए। उन्होंने साधना का मार्ग चुना और गुरु के बताए मार्ग का अनुसरण करते हुए जीवन पर्यन्त सतनामी सद्गुरुओं की भूमि भुड़कुड़ा को सींचते रहे। वे मठ में आने जाने वाले श्रद्धालुओं से जन भाषा में संवाद करते हुए बड़ी ही आत्मीयता के साथ सन्त साहित्य और श्रीरामचरितमानस के गूढ़ रहस्यों का विवेचन विश्लेषण किया करते थे। कभी कभार मन हुआ तो हारमोनियम लेकर भजन गाना शुरू कर देते थे और ढोलक पर थाप देते थे। भुड़कुड़ा गांव के प्रज्ञा चक्षु विजई। बालसुलभ खिलखिलाहट उनके चेहरे पर सदैव उपस्थित रहती थी। वे सहज तो इतना थे कि कबीर के शब्दों में “जहँ जहँ डोलौं सो परिकरमा/जो कुछ करौं सो पूजा/जब सोवौं तब करौं दण्डवत भाव मिटाओं दूजा।”
अपनी इसी सहजता के कारण ही श्री महन्थ रामाश्रय दास जी अपने जीवन काल में असहज परिस्थितियों का सामना भी हंसते खिलखिलाते हुए किया करते थे। वास्तव में सहजता ही परम आनंद का स्रोत है, यह रहस्य सन्तजन से बेहतर कौन जानता है?
महन्थ जी इस रहस्य को जानते थे और कबीर साहेब की कथनी के अनुरूप अपनी दिनचर्या को ढाल लिए थे।
“भक्ति नारदी मगन शरीरा/यह विधि भवतरि कहैं कबीरा।”
साधारण भोजन, अति साधारण रहन सहन लेकिन हमेशा आध्यात्मिक ऊंचाई के शिखर पर आसनस्थ दिखाई देते थे। लोग मंदिर जाते हैं, परिक्रमा करते हैं।परमात्मा की परिक्रमा एक भाव है। यह एक प्रार्थनापूर्ण हृदय का भाव है। इसलिए जरा भी हिलना डुलना उसकी परिक्रमा है, जो भी किया जा रहा है वह उसका ही काम है, वही पूजा है। अलग से मंदिर जाकर क्या साष्टांग लेटना? रात को जब सोने जाय बिस्तर पर तो वही दण्डवत है। भावभजन करते करते सन 1972 में महन्थ जी ने अपने गुरु का अनुसरण करते हुए उच्चशिक्षा का प्रसार करने के उद्देश्य से इस दूरस्थ क्षेत्र में डिग्री कॉलेज की स्थापना किये जो आगामी सितम्बर माह में पचास वर्ष पूर्ण कर स्वर्ण जयंती वर्ष मनाएगा। गाजीपुर जनपद के पश्चिमी छोर पर स्थिति यह महाविद्यालय उनकी साधना और त्याग का प्रसाद है। आज दिन भी गाजीपुर या आस पास ही नहीं वरन पूर्वांचल के कई जिले इस ज्ञानकेन्द्र से लाभान्वित हो रहे हैं। भौतिकता की चकाचौंध भरी इस दुनियां में श्री महन्थ रामाश्रय दास जी का स्थूल शरीर हमारे बीच नहीं है लेकिन उनकी यशः काया मानवता के सन्ताप का क्षय करती रहेगी और अंत में “फकीराना तबियत थी मिले जो बांट देते थे..”
के साथ पुण्य स्मरण करते हुए महन्थ जी की सूक्ष्म उपस्थिति को साहेब सतनाम!