स्वामी विवेकानंद जी की जयंती पर विशेष
19वीं शताब्दी के युग के आरंभ में बहुतेरे विद्वानों ने यह आशंका जाहिर की थी कि इस बार धर्म का ध्वंस होना अवश्यंभावी है तत्कालिक वैज्ञानिक गवेषणा के तीव्र आघात से पुराने संस्कार चीनी मिट्टी के बर्तनों के तरह चूर चूर होते जा रहे थे, जो लोग धर्म को केवल मतवाद और अर्थशून्य कार्य समझ रहे थे, वे लोग किंकर्तव्यविमूढ़ हो पड़े और वक्त ऐसा चल रहा था कि मानो नास्तिकता एवं तर्कवाद की आंधी में सब कुछ उखड़ जाएगा,तब उस कालखंड में स्वामी विवेकानंद जी ने धर्म के पुनर्जागरण में महती भूमिका निभाते हुए लोगों को पुनः धर्म के केंद्र में लाने का साहसिक व अत्यंत चुनौतीपूर्ण कार्य किया।
स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 में बंगाल में हुआ था । उनके बचपन का नाम नरेंद्रनाथ दत्त था। पिता का नाम विश्वनाथ दत्त और माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। आज लगभग डेढ़ शताब्दी बीत जाने के बाद भी विवेकानंद जी के विचार प्रासंगिक है, क्योंकि आज पुनःवह स्थिति प्रकट हो रही है,जिस राष्ट्र के युवा प्रतिनिधित्व का लोहा 1893 शिकागो सम्मेलन में समूचा विश्व मान गया था,उस राष्ट्र के युवा दिशाहीन व आश्रित लक्ष्य में कर्त्तव्यविमूढ़ हो चुके है,जहां अपराध, अनैतिकता, जातिकेंद्रिता , भ्रष्टाचार व धार्मिक उन्माद जैसे भाषण लोकप्रियता का मूलाधार बनते जा रहे है। इस स्थिति मे विवेकानंद जी के विचारों तक युवा पीढ़ी को लाना होगा, विवेकानंद जी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं –
जब मैं पहले दिन स्कूल गया था तो जीवन में जो मुझे पहला श्लोक पढ़ाया गया था वह था-
“मातृवत् परदाराणि परद्व्याणि लोष्ठवत्।
आत्मवत् सर्वभूतानि वीक्षन्ते धर्मबुध्दयः “।। जो व्यक्ति दूसरे की नारी को माता के रूप में देखता है एवं दूसरे के धन को धूल के समान समझता है एवं प्रत्येक जीव के भीतर स्वयं की आत्मा को देखता है वही सच्चा विद्वान् है। विवेकानंद जी ने शिक्षा का आधार डिग्री एवं उपाधियों को न मानते हुए सुसंस्कृत आचरण को माना है।
स्वामी जी को युवाओं से बड़ी उम्मीदें थीं, उन्होंने युवाओं की अहं की भावना को खत्म करने के उद्देश्य से कहा है ‘यदि तुम स्वयं ही नेता के रूप में खड़े हो जाओगे, तो तुम्हें सहायता देने के लिए कोई भी आगे नहीं बढ़ेगा। यदि सफल होना चाहते हो तो पहले ‘अहं’ को नाश कर डालो।’ उन्होंने युवाओं को धैर्य, व्यवहारों में शुद्धता रखने, आपस में न लड़ने, पक्षपात न करने और हमेशा संघर्षरत् रहने का संदेश दिया।
स्वामी विवेकानंद जी अपने लेखन में राष्ट्रवाद का सार बताते हुए कहा है कि – हमारी भारत भूमि पवित्र धर्म और दर्शन की भूमि है,अध्यात्मिक संतों एवं महान विभूतियों की भूमि है। त्याग और समर्पण की भूमि है ,जहां प्राचीन से लेकर आधुनिक समय तक के जीवन का सर्वोच्च आदर्श खुला है। जन्म से ही धार्मिक विचार रखने वाले विवेकानंद जी भारत को विश्व गुरु बनाने की समूची रूप-रेखा तैयार कर चुके थे । उन्होंने विविध आयाम जैसे-धर्म ग्रंथ ,विज्ञान ,युवा, वेदांत पर अपने विचार रखे हैं, जो युवाओं के लिए पठनीय व अनुकरणीय है। यह भारत का दुर्भाग्य था कि भारत को विश्व गुरु का गुरु मंत्र देकर प्रकाश का यह पुंज महामानव केवल 39 वर्ष कि अल्पायु में ही 04 जुलाई 1902 को अस्त हो गया।