पराशर -वाणी
इस पावन धरा पर परशुराम, राम, कृष्ण, बलराम, बुद्ध आए और इस संसार को छोड़कर विदा हो गए। शरीर नहीं है किन्तु जीवन्त रूप में आज भी घर – घर पूजे जाते हैं। ब्रह्माजी वाल्मीकि भये और वाल्मीकि ही तुलसी दास हुए। आज तुलसी भले ही शरीर से नहीं हैं किंतु परशुराम,राम, कृष्ण,बुद्ध की भांति आज भी पूजे जाते हैं।
तुलसी जैसे सूर, कबीर, मीरा, रसखान, बिहारी अनेकों आए किंतु इनका कहीं आवाहन- पूजन नहीं होता क्योंकि ये केवल भारतीय भूभाग तक ही सीमित रह गये वह भी शिक्षालयों तक। दूसरी ओर तुलसी भौगोलिक सीमाओं को लांघकर विश्व में पूज्यनीय हैं। तुलसी न होते तो शायद ही कोई राम से परिचित होता। तुलसी एक गुरु हैं,आशा हैं, प्रेरणा हैं, आत्मबल हैं, धड़कन हैं, औषधि हैं, मित्र हैं , अमर ज्योति हैं। शायद शब्द इनके लिए कम पड़ जायें।
संवत् 1554 में श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन ही अभुक्त मूल में आत्माराम दूबे के यहां एक अंकुर फूटा। दुर्भाग्य ने उस अंकुर के भविष्य पर अंकुश लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी किंतु दुर्भाग्य पर ही उस अंकुर ने अंकुश लगा दी। सहसा संवत् 1561 में माघ शुक्ल पंचमी को उस रामबोला ( अंकुर) का उपनयन संस्कार गुरु श्री नरहर्यानन्दजी ने कराया और नामकरण भी ‘तुलसी ‘ हुआ। घर वापसी पर केवल पिता का श्राद्ध ही हाथ लगा। कालांतर जीवन में एक रत्नावली सहगामिनी मिली किंतु वह भी तुलसी के साथ अधिक दिनों तक नहीं रह पाई।
तुलसी समय के थपेड़ों से लोहा लेते रहे। अंत का भी एक दिन निश्चित ही अंत होता है। संवत् 1607 को मौनी अमावस्या बुधवार को तुलसी के जीवन में अचानक चित्रकूट के घाट पर धनुष-बाण लिए बालकों का दर्शन हुआ। माघ मेला में भरद्वाज और याज्ञवल्क्य जी के दर्शन हुए। संवत् 1631में काशी आने पर भगवान शिव की कृपा से उनके आराध्य की जीवनी लिखने का आदेश हुआ जो आगे चलकर ‘ श्रीरामचरितमानस ‘ से धरा पर विख्यात हुआ। वाल्मीकि और तुलसी के राम में अंतर है। धरा पर जब -जब राम याद किए जाएंगे तो तुलसी उससे पूर्व ही याद रहेंगे। आज भी जनमानस में तुलसी जिन्दा हैं और रहेंगे।
(लेखक परासर वाणी वार्षिक पत्रिका के संपादक हैं)