यम शब्द के द्वारा कह जाने वाले ये अहिंसा इत्यादि (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह- पाँच) योग सिद्धि में अङ्ग, सहायक रूप से वर्णन किये गये हैंजाति-देश-काल-समयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् ॥३१॥
अर्थः- जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः = अहिंसा-सत्य-अस्तेय-ब्रह्मचर्य-अपरिग्रह नामक पाँचों यम, ब्राह्मणत्व आदि जाति, तीर्थ आदि देश, एकादशी-चतुर्दशी इत्यादि काल एवं ब्राह्मण भोजन इत्यादि समय है। इन जाति-काल-देश-समय चारों के अनवच्छिन्न अर्थात् इनके प्रतिबन्ध, सीमा से रहित सभी भूमि, अवस्थाओं में होने वाले महाव्रत हो जाते हैं अर्थात् जाति-देश-काल-समय की परिधि से रहित पालन किये जाने पर यम ही महाव्रत हो जाते हैं । = ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व इत्यादि जाति हैं। तीर्थ इत्यादि स्थान देश हैं, चतुर्दशी, एकादशी इत्यादि काल है। ब्राह्मण प्रयोजन इत्यादि समय है- इन जाति-देश-काल-समय चारों से न घिरे हुए, न रोके गये पूर्वोक्त (पहले वर्णन किये गये) अहिंसा इत्यादि (अहिंसा-सत्य-अस्तेय ब्रह्मचर्य अपरिग्रह) यम है। सभी क्षिप्त इत्यादि, (क्षिप्त -मूढ़-विक्षिप्त-एकाग्र-निरुद्ध) चित्त की भूमियों में होने वाले, पालन किये जाने पर ‘महाव्रत’ इस रूप, नाम से कहे जाते है। जैसे कि ब्राह्मण का वध नहीं करूँगा। तीर्थ स्थान में किसी को नहीं मारूंगा। चतुर्दशी तिथि-काल में किसी का वध नहीं करूँगा। देव तथा ब्राह्मण के उद्देश्य के बिना, देव तथा ब्राह्मण के प्रयोजन के अतिरिक्त अर्थात् इनसे भिन्न प्रयोजन में किसी भी जीव की हिंसा नहीं करूँगा। इस प्रकार चार प्रकार के बाधकों के बिना, इन चार प्रकार के विधान रूप बाधाओं या सीमाओं के अभाव में किसी प्राण को किसी भी स्थान पर किसी भी काल में किसी प्रयोजन के लिए किसी का वध नहीं करूँगा। इस रूप से, यहाँ जाति-देश-काल-समय की सीमा से रहित, निस्सीम अहिंसा का पालन है; अतएव यह महाव्रत है। इसी प्रकार सत्य इत्यादि में अर्थात् सत्य-अस्तेय-ब्रह्मचर्य-अपरिग्रह में सम्बन्ध के अनुसार सम्बन्ध के अनुसार संयोजना, सम्बन्ध जोड़ना चाहिए इस प्रकार से विना निश्चय किए गए, सीमा से न बँधे हुए, नियंत्रित न किये गए सामान्य, साधारण, स्वाभाविक रूप से ही प्रवृत्त हुये, पालन किये गये, अहिंसा इत्यादि यम ही महाव्रत इस रूप, नाम से कहे जाते हैं। फिर दूसरी आवरण सीमा को न ग्रहण करना ही, इस रूप से पालन किए गये अहिंसा इत्यादि यम की ही संज्ञा महाव्रत है (॥३१॥ पातञ्जल योगसूत्र साधनपाद)
२. नियम: पाँच व्यक्तिगत नैतिकता(क) शौच – शरीर और मन की शुद्धि। अर्थात् पवित्रता दो प्रकार की होती है:- बाहरी पवित्रता और आन्तरिक शौच (अन्तःकरण की पवित्रता/शुद्धता)। मिट्टी, जल इत्यादि से शरीर इत्यादि के अङ्गों का धोना, स्वच्छ करना बाह्य स्वच्छता, पवित्रता है। मैत्री इत्यादि अर्थात् मैत्री-करुणा-मुदिता-उपेक्षा के द्वारा चित्त में रहने वाले राग-द्वेष, क्रोध-द्रोह-ईर्ष्या-असूया-मद-मोह-मत्सर-लोभ इत्यादि मलों, कलुषों, अशुद्धियों का निराकरण करना ही आन्तरिक स्वच्छता, पवित्रता है।(ख) सन्तोष – सन्तुष्ट और प्रसन्न रहना। तुष्टि ही सन्तोष है। अर्थात् स्वकर्तव्य का पालन करते हुये, प्रबन्ध के ही अनुसार प्राप्त फल से सन्तुष्ट हो जाना, किसी प्रकार की तृष्णा का न होना ही सन्तोष है।
तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः ॥ १ ।॥ अर्थः, तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि= तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान भक्ति-विशेष, शरणागति, सभी कर्मफलों की समर्पण बुद्धि ही क्रियायोगः = क्रिया-योग है। ये क्रियायें योग की सिद्धि में साधन है, अतएव इनको क्रिया-योग अथवा कर्मयोग कहते हैं। इन्हीं तप, स्वाध्याय, ईश्वर-समर्पण-बुद्धि को क्रिया-योग कर्मयोग इस रूप से कहते हैं ।।१॥ (साधनपाद पातञ्जल-योगसूत्र)(ग) तप – स्वयं से अनुशासित रहना। दूसरे शास्त्रों में वर्णन किये गये चान्द्रायण इत्यादि तप है।(घ) स्वाध्याय – आत्मचिंतन करना। प्रणव पूर्वक, ओंकार के साथ मन्त्रों का जप, पाठ करना स्वाध्याय है।(च) ईश्वर-प्रणिधान – ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा। सभी कर्मों का फल की अभिलाषा, कामना न रखते हुए उस सर्वश्रेष्ठ गुरु, ईश्वर में समर्पित करना ईश्वरप्राणिधान है। योगी को क्रियायोग का अभ्यास करना चाहिये। इस विचार से क्रियायोग को कहा गया है, उपदेश, वर्णन किया गया है। यम, नियमों के पालन करने में हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य, परिग्रह इत्यादि वितर्कों से बाधा उपस्थित होने पर बराबर प्रतिपक्ष की भावना करनी चाहिए अर्थात् उन्हीं वितर्कों में दोष दर्शन करना चाहिए ।
३. आसन: योगासनों द्वारा शारीरिक नियंत्रण।स्थिरसुखमासनम् ॥ ४६ ॥
अर्थः-स्थिरसुखं= स्थिर भाव से, निश्चल रूप से तथा सुखपूर्वक बैठने को, आसनं = आसन कहते हैं। अथवा जिसके द्वारा स्थिरता तथा सुख की प्राप्ति हो, वह आसन है। इसके द्वारा स्थिरभाव से तथा सुखपूर्वक बैठा जाता है इसलिये इसे आसन कहते हैं। यथा- पद्मासन, दण्डासन, स्वस्तिकासन इत्यादि।

४. प्राणायाम: श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण
५. प्रत्याहार: इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना
६. धारणा: एकाग्रचित्त होना
७. ध्यान: निरंतर ध्यान
८. समाधि: आत्मा से जुड़ना, शब्दों से परे परम-चैतन्य की अवस्था