Saturday, April 26, 2025
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सामन्तवाद(feudalism) क्या है?

विकिपीडिया के अनुसार

सामंतवाद (Feudalism / फ्युडलिज्म) मध्यकालीन युग में इंग्लैंड और यूरोप की प्रथा थी। इन सामंतों की कई श्रेणियाँ थीं जिनके शीर्ष स्थान में राजा होता था। उसके नीचे विभिन्न कोटि के सामंत होते थे और सबसे निम्न स्तर में किसान या दास होते थे। यह रक्षक और अधीनस्थ लोगों का संगठन था। राजा समस्त भूमि का स्वामी माना जाता था। सामंतगण राजा के प्रति स्वामिभक्ति बरतते थे, उसकी रक्षा के लिए सेना सुसज्जित करते थे और बदले में राजा से भूमि पाते थे। सामंतगण भूमि के क्रय-विक्रय के अधिकारी नहीं थे। प्रारंभिक काल में सामंतवाद ने स्थानीय सुरक्षा, कृषि और न्याय की समुचित व्यवस्था करके समाज की प्रशंसनीय सेवा की। कालांतर में व्यक्तिगत युद्ध एवं व्यक्तिगत स्वार्थ ही सामंतों का उद्देश्य बन गया। साधन-संपन्न नए शहरों के उत्थान, बारूद के आविष्कार, तथा स्थानीय राजभक्ति के स्थान पर राष्ट्रभक्ति के उदय के कारण सामंतशाही का लोप हो गया।.

यूरोप में सामंतवाद का विकास सामान्यतः इन परिस्थितियों में हुआ। रोमन साम्राज्य के टूटने के बाद उस पर पश्चिमी यूरोप की असभ्य जातियां-फ्रैंक लोम्बार्ड तथा गोथ इत्यादि ने अधिकार कर लिया। इन लुटेरी जातियों ने समाज और सरकार को सर्वथा नवीन रूप दिया। पांचवीं शताब्दी तक रोमन साम्राज्य अपनी रक्षा करने में असमर्थ हो चुके थे। जर्मन की बर्बर जातियों के आक्रमण के कारण इटली के गांव असुरक्षित से हो गए थे, क्योंकि सरकार सुरक्षा करने में समर्थ नहीं थी जिसके परिणामस्वरूप जनता ने अपनी सुरक्षा के लिए शक्तिशाली वर्ग से समझौता किया। यही शक्तिशाली वर्ग आगे चलकर सामंतवाद के आधार बने। इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में भी सुरक्षा की आवश्यकता पर विशेष बल दिया गया है। उसके अनुसार ‘‘सामंतवाद के जन्म में सुरक्षा की भावना प्रधान थी। संभावित विदेशी आक्रमण तथा सरकारी अफसरों की अनियंत्रित मांगों से छुटकारे के लिए एक ऐसी सत्ता की आवश्यकता अनुभव की जा रही थी, जो उन्हें किसी भी कीमत पर सुरक्षा प्रदान कर सके।’’

यूरोप में सामंतवाद के उदय के पीछे एक और जबरदस्त कारण रहा हैं। साम्राज्य के दूरस्थ विस्तार के कारण सम्राट पूरे साम्राज्य का सुचारू रूप से संचालन करने में असमर्थ था। इसलिए सत्ता का विकेन्द्रीकरण हो गया जो आवश्यक कार्य होने के साथ लोकतंत्र की दिशा में एक कदम था।

धीरे-धीरे जनता को सुरक्षा प्रदान करने वाला यह शक्तिशाली वर्ग अर्थात् सामंतवाद सम्पूर्ण यूरोप में फैल गया। उसका केन्द्र कैरोलिगियन साम्राज्य में था। वहां से वह पवित्र रोमन साम्राज्य के माध्यम से पूर्वी जर्मनी और डेनमार्क पहुंचा। दक्षिणी फ्रांस में सामंतवाद का प्रभाव स्पेन पर पड़ा। बाद में सामंतवाद फ्रांस में अपने उत्कर्ष रूप में दिखाई पड़ता है। नारमन विजय के फलस्वरूप दक्षिणी इटली और इंग्लैण्ड भी इसके पूर्ण प्रभाव में आ गए। इस प्रकार सम्पूर्ण यूरोप में एक नए ढंग की व्यवस्था का सूत्रपात हुआ और यही नई व्यवस्था सामंतवाद कहलायी जो लगभग आठवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक समस्त यूरोप में अपने पूर्ण वैभव के साथ छाई रही।

इसी के संदर्भ में डॉ॰ रामशरण शर्मा को मत उद्धृत किया जा सकता है -‘‘उनका राजनीतिक और प्रशासनिक ढांचा भूमि अनुदानों के आधार पर गठित था और उसी ढांचा कृषि दासत्व प्रथा के आधार पर। इस प्रथा के अधीन किसान भूमि से बंधे होते थे और भूमि के मालिक वे जमींदार होते थे जो असली काश्तकारों और राजा के बीच कड़ी का काम करते थे। डी.डी.आर. भण्डारी भी ‘‘सामतंवाद को संवेदात्मक सरकार का एक रूप मानते है जिसमें सामंत मध्यस्थता का काम करते थे। कुछ इन्हीं आधारों को पुष्ट करते हुए डॉ॰ सतीशचन्द्र का मत है कि ‘‘यूरोप में सामंतवाद का सम्बन्ध दो व्यवस्थाओं से था जिनमें से एक कृषि दास व्यवस्था तथा दूसरा आधार था सैनिक संगठन।’’ इस आधार पर कृषि दासत्व एवं सैनिक संगठन दोनों सामंतवाद के मुख्य आधार है। इस विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि सामंतवाद यूरोप में भूमिव्यवस्था से सम्बन्धित विकेन्द्रीकरण पर आधारित एक ऐसी प्रशासकीय व्यवस्था थी जिसमें सामंत सर्वोच्च सत्ता और किसानों के मध्य पुल था, जो दोनों पार्टी से निश्चित अनुबंधों के माध्यम से जुड़ा होता था।

यूरोप में राज्य सेवा करने के पुरस्कार स्वरूप सामंतों को भूमि दी जाती थी और उन सामंतों की प्रशासनिक देख-रेख में जितना क्षेत्र होता था, उसका पूरा राजस्व उन्हीं को प्राप्त होता था किन्तु वह अपने अधीनस्थ लोगों के प्राप्त कर में से अपने प्रभु को नियमित रूप से कुछ नज़र भेजता रहेगा। राजा अफसरों को नकद वेतन के बदले जमीन देता था। जमीन उन अन्य लोगों को भी दी जाती थी जिनको राजा पुरस्कृत करना चाहता था।

इसलिए यूरोपीय सामंतवाद में किसानों को, जमींदारों या उन व्यक्तियों के लिए काम करना पड़ता था जिन्हें जमीन दे दी जाती थी और जो सामंती कहलाते थे। सामंतों का कर्तव्य राजा के लिए सैनिक एकत्र करना था। प्रो॰ सिजविक ने सामंतवाद को चार विभिन्न प्रवृत्तियों का परिणाम माना है। पहली प्रवृत्ति एक मनुष्य की दूसरे मनुष्य के साथ, जो उससे उच्चतर स्तर का था, वैयक्तिक संबंधों की थी। अपनी सुरक्षा के दृष्टिकोण से उन्होनें अपने से शक्तिशाली व्यक्ति के साथ सम्बन्ध स्थापित किया जो नागरिकता के नाते न होकर वैयक्तिक था। सरंक्षक और आश्रित एक दूसरे के साथ वैयक्तिक सम्बन्धों के जुड़ाव के कारण बंधे हुए थे। संरक्षक अपने आश्रितों की रक्षा करता था तथा आश्रितों की बढ़ती हुई संख्या के कारण उसका बल बढ़ जाता था। दूसरी प्रवृत्ति मनुष्य के अधिकार, राजनैतिक स्थान तथा उसकी सामाजिक स्थिति के निर्धारण करने की प्रवृत्ति थी। सामंतवाद में व्यक्ति के राजनैतिक संबंध तथा उसकी सामाजिक स्थिति इस बात पर निर्भर करती है कि वह कितनी भूमि का स्वामी था। तीसरी प्रवृत्ति यह थी कि बड़े-बड़े भूपति अपने प्रदेशों में राजनीतिक सत्ता का प्रयोग करने लगे। यह परिवर्तन क्रमशः हुआ। उन्हें यह अधिकार प्रारम्भ से प्राप्त नहीं था, केन्द्रीय सत्ता की दुर्बलता के कारण जैसे-जैसे उनकी शक्ति बढ़ी, उन्होंने अपने प्रदेश की सुव्यवस्था के लिए अपने अधिकारों को बढ़ाया और उन पर शासन करने लगे। चौथी प्रवृत्ति सामाजिक वर्गों के पार्थक्त की प्रवृत्ति थी राजा अथवा सामंत पर आश्रित व्यक्ति दो प्रकार के होते थे। पहले वे जो सैनिक सेवाओं के बदले राजा या सामंतों से बंधे हुए थे तथा दूसरे वे जो उनकी भूमि पर कृषि या अन्य प्रकार के कार्य करते थे।

श्री एच. एस. डेवीस ने सामतंवाद के स्वरूप को निर्धारित करते हुए इसकी मौलिक प्रवृत्तियों का विश्लेषण करते हुए कहा है कि ‘‘इस व्यवस्था के अंतर्गत व्यक्ति सुरक्षा के दृष्टिकोण से अपने प्रभु से अनुबंधित होता था। वह अपने सामंती प्रभुत से पृथक् अपनी स्वतंत्रा सत्ता की घोषणा नहीं कर सकता था। युद्ध सामंती व्यवस्था का प्रमुख सिद्धान्त था। भाई-भाई के विरूद्ध और पुत्र पिता के विरूद्ध लड़ने में कोई संकोच नहीं करता था। निम्न वर्ग की दशा भी अत्यन्त शोचनीय थी।’’ प्रस्तुत दृष्टिकोण में व्यक्ति की सुरक्षा की भावना पर अधिक बल दिया गया है एवं सामंती सम्बन्धों तथा अनुबन्धों की दृढ़ता की ओर संकेत किया गया है। जिस प्रभु से व्यक्ति लाभान्वित होता था, उसके प्रति अपने स्वामी-भक्ति का प्रदर्शन करना पड़ता था। व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता समाप्त हो जाती थी। हेनी एस ल्यूकस के अनुसार ‘‘सामंती संगठन में सामंत को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। प्रत्येक सामंती राजकुमार के अधीन अनेक वेसोल्स होते थे, जो उसे अपनी सलाह तथा युद्ध में सहायता देने के लिए प्रतिबंधित थे।’’

श्री ल्यूकस के मतानुसार राजा और सामंत दोनों की पारस्पारिक अनुबंधता सिद्ध होती है, जिसका आधार पारस्पारिक आदान-प्रदान था। सामंत राजा को सैनिक सहायता प्रदान करता था, राजा को महत्वपूर्ण परामर्श देकर राजा की मंत्रणा प्राप्त करने का अधिकारी था। बेव्सटर महोदय ने अपने कोश में सामंतवाद के स्वरूप में प्रकाश डालते हुए लिखा है कि ‘‘यह एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था थी जो राजा और सामंत के भूमि से सम्बन्धित पारस्पारिक सम्बन्धों पर आधरित थी तथा जिसमें भूमि प्राप्तकर्ता द्वारा सेवा और आदर-भावना स्वामित्व, सहायता, विवाह आदि की घटनाएं प्रमुख थी।’’

चैम्बर्स इन्साक्लोपीड़िया में सामंतवाद विषयक मान्यताओं में स्वामी भक्ति और आज्ञा-पालन पर बल देते हुए लिखा गया है कि ‘‘सामंतवाद शब्द यद्यपि समाज व्यवस्था का एक प्रकार है तथा मुख्य रूप से उन व्यक्ति सम्बन्धों की व्याख्या करता है जो जमीन के अधिकार और व्यक्तिगत सम्पति के आधार पर एक व्यक्ति की दूसरे व्यक्ति के प्रति अधीनता प्रकट करते है, तथापि यह व्यक्तिगत सम्बन्धों और नियमों की उस विशिष्ट पद्धति की ओर संकेत करता है जिसमें एक ओर सुरक्षा तथा निर्वाह है तथा दूसरी ओर सेवा तथा आज्ञा पालन है। इस प्रकार सामंत के निर्वाह और सामंतवादः सामाजिक एवं आर्थिक विकास प्रक्रिया सुरक्षा का उत्तरदायित्व प्रभु पर था। साथ ही सामंत प्रभु की आज्ञापालन और सेवा भक्ति से अनुबंधित था। आज्ञा पालन न करने पर राजा केवल सैद्धान्तिक रूप में उससे भूमि वापस लेकर उसे पदच्युत कर सकता था। यह केवल प्रारंभिक सैद्धान्तिक स्वरूप था, किन्तु व्यवहारिक रूप में ऐसा नहीं होता था। कालांतर में यह व्यवस्था बदल गयी। भूमि पहले आजीवन दी जाती थी, बाद में आनुवंशिक अधिकार होने लगा। तब उन्होंने भी प्राप्त भूमि को उन्हीं शर्तों पर प्रदान किया जिन शर्तों पर इन्हें राजा से प्राप्त हुई थी। इस प्रकार सामंती व्यवस्था वंशानुगत रूप से चलने लगी।

पूर्वोक्त मत की पुष्टि के संदर्भ में वह विचार देखा जा सकता है। ‘‘सामंती प्रथा वंशानुगत थी। सामंत की मृत्यु के बाद उसका उत्तराधिकारी उसका स्वामी बनाया जाता था, जो पहले राज्य दरबार में जाकर कुछ भेंट कर राजा के प्रति अपनी स्वामी भक्ति प्रगट किया करता था।’’

इस प्रकार राजा द्वारा सामंत को और सामंत द्वारा अपने से नीचे सरदारों को भूमि प्रदान करना वंशानुगत हो गया और सामंतवाद के एक नये स्तर अर्थात् उपसामंतवाद का जन्म होने लगा। कृषकों का सम्बन्ध सीधे राजा से न होकर एक मध्यस्थ कुलीन उच्चवर्ग से होने लगा। यद्यपि मुद्रा का चलन पूर्णतः समाप्त नहीं हुआ था तथापि उसका प्रयोग बहुत कम होता था, धन के रूप में भूमि का प्रयोग किया जाता था। सामंती व्यवस्था का सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिद्धान्त आनुवंशिकता का था।

पाश्चात्य सामंतवाद विषयक पूर्वोक्त विद्वानों के मतों का विवेचन-विश्लेषण करने पर जो मुख्य निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। कहीं तो प्रभु और सामंत के अनुबंधात्मक संबंधों में निहित कानूनी पक्ष पर बल दिया गया है, कहीं सामाजिक पक्ष पर कहीं आर्थिक पक्ष पर, किन्तु कुछ ऐसे सामान्य तत्व भी है जिनका लगभग सभी विचारकों के मतों में संकेत मिलता है। इन सामान्य तत्वों में प्रभु द्वारा भूमि अनुदान और सामंत द्वारा सेवा एवं आज्ञा-पालन। इनके साथ यूरोपीय सामंतवाद के स्वरूप निर्धारण में कृषि दासत्व प्रथा भी एक महत्वपूर्ण तत्व है। इसके अधीन किसान भूमि से बंधे होते थे और भूमि के असली मालिक वे जमींदार होते थे जो असली काश्तकारों और राजा के बीच कड़ी का काम करते थे। किसान जमीन जोतने के बदले सामंतों को उपज और बेठ-बेगार के रूप में लगान अदा करते थे। इस प्रणाली का आधार आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था थी, जिसमें चीजों का उत्पादन बाजार बाजार में बेचने के लिए नहीं, बल्कि मुख्यतः स्थानीय किसानों और उनके मालिकों के उपयोग के लिए होता था।’’

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