किसान बिल के पक्ष में एक पहलू यह भी

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AC में बैठे किसान नेताओं की बात किसानों तक नहीं पहुंच रही

नई दिल्ली।

किसान बिल को लेकर विपक्ष बवाल काट रहा है। सपा आज यूपी भर के तहसील मुख्यालय पर एकत्र होकर इस बिल को वापस लेने के लिए दबाव बना रही है। देश भर के किसान संगठन इस बिल के खिलाफ हैं। संगठनो का कहना है कि बिल को लाने से पहले या बाद में किसी से राय तक नहीं ली गयी। संगठनों का आरोप यह भी है कि सरकार कार्पोरेट के इतने दबाव में है कि इस बिल को चोर दरवाजा ( अध्यादेश) से लेकर आयी। यहाँ तक कि राज्यसभा में अल्पमत में थी तो यहाँ शोरगुल में ध्वनि मत से पारित करवा ली। इस बिल का मुखर विरोध पंजाब और हरियाणा में हो रहा है। किसानों के बिरोध के कारण सरकार के सहयोगी अकाली दल के कोटे से खाद्य प्रसंस्करण मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने अपने पद से यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया कि सरकार हमारी बात मानने को राजी नहीं है। अकाली दल किसानों में अपनी धुमिल होती छवि को चमकाने और अपने खिसकते जनाधार को रोकने के लिए यह कदम जरुर उठाई है लेकिन यह भी यह है कि अंदर खाने कुछ ठीक नहीं चल रहा।

निलंबित 8 सांसद डेरेक ओ ब्रायन, संजय सिंह, राजीव साटव, केके रागेश, रिपुन बोरा, डोला सेन और ए करीम का जोरदार समर्थन होना चाहिए

अब बात यूपी और बिहार के किसानों की है तो यहां बात करने से पहले यह जान लेना जरुरी है कि इन प्रदेशों में किसान बचे ही नहीं हैं। यहां की खेती तो बीस- पच्चीस साल पहले ही टुट चुकी है। गाँव में आजकल खेती वही कर रहे हैं जिनके पास कोई चारा नहीं है। जिनके पास खेत है वे लोग इन पच्चीस वर्षों में रोजी-रोटी के जुगाड़ में जहां गये वही बस गये। इनके खेतों को गाँव के मजदूर काश्तकारी ,मालगुजारी आदि तरिके से करते हैं इस कारण यहां किसानों को परित बिल से पड़ने वाले प्रभाव का पता ही नहीं है। हम बहुत ऎसे परिवारों को जानते हैं जिनकी आज की पीढ़ी को पता ही नहीं है कि उनका खेत किस- किस मौजे( तालुका) में है तो उन्हें क्या पता कि इस बिल से उनके उपर क्या प्रभाव पड़ेगा? हां जो इस बिल को समझ रहे हैं और खेती नहीं करते उन्हें इस बिल से फायदा ही नज़र आ रहा है। मसलन जिस खेत को मजबूरी में गाँव के नव उदय मजदूर को खेती करने को देते हैं उन्हें वे मजदूर कम किसान औने- पौने दाम सलाना देते हैं। यही नहीं खेती कमजोर हुई तो पैसा देने में भी लापरवाही करते हैं। यही नहीं जो‌ ऎसे किसान हैं वे लोग इस पुस्तैनी जमीन को चाह कर भी बेच नहीं पाते,कारण कि बाप- दादा की प्रतिष्ठा का बोझ ढोना भी है। यह हकीकत है इन दोनों प्रदेशों के खेत वाले मलिकारों की। यह स्थिति देश भर के किसानों के साथ भी हो सकती है जो खेती नहीं करते और उपरोक्त समस्या से जुझ रहे हैं।

तब वास्तव में नुकसान किसका होगा प्रश्न यह उठता है। तो इसका नुकसान वास्तव में उन मजदूरों का होगा जो इन खेत मालिकों के खेत लेकर खेती करते हैं और अपना जीवन स्तर सुधारने की जुगत में लगे रहते हैं। इस बात को किसान संगठनों सहित अन्य सभी कृषि विशेषज्ञ जानते हैं लेकिन इनकी अब कोई नहीं सुनता वजह कि ये लोग दिल्ली में एसी में बैठ कर बोलते तो हैं लेकिन इनकी बात जमीन पर पहुंचाने वाला अब कोई नहीं बचा है। पहले के समाजवादी, कम्युनिस्ट इन गरीब- गुरबो के बीच रहते थे और इनकी हक की लड़ाई लड़ते थे हजारों का हूजूम साथ हो लेता था। अब वह नर्सरी बंद हो गयी तो इन्हें समझायेगा कौन ?

जब किसान पलायन कर रहा था तब इन कम्युनिस्टों, समाजवादियों और दलितवादियों को प्रसन्नता हो रही थी अब की बिलबिलाहट समझ में नहीं आती। इन गतिरोध के बावजूद रास के इन सांसदों का समर्थन किया जाना चाहिए।

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