Saturday, March 15, 2025
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हंगामा है क्यों बरपा…..

(किसान आन्दोलन पर लेखक/कवि संजय रिक्थ की त्वरित टिप्पणी)

किसी ने कहा कि किसानों के आंदोलन पर भी कुछ लिखिये।

मेरे लिखने से क्या होता है। बात अभिव्यक्ति की ही होती तो क्या कहना। लेकिन हम जैसे लोग सिर्फ बोलकर नहीं रुकते। बीमारी है मैदान में कूद जाने की। अभी कूद-फांद का इरादा नहीं है।

सवाल मेरा यह है कि वर्तमान के तीन कानूनों से पहले किसान कितने खुश या कितने दुखी थे। आत्महत्याएं हो ही रहीं थीं। किसानों-मजदूरों की चर्चा हर नेता के भाषणों में होता ही था। सिंचाई, बाजार, उपज और बिक्री सब हो ही रहे थे। आजादी के इतने वर्षों बाद भी किसानों की दशा में कुछ खास बदलाव तो देखा नहीं। गुजरात ने श्वेत क्रांति का लाभ लिया तो पंजाब और हरियाणा ने हरित क्रांति का। बिहार-झारखंड के किसान को तो भूखे मरने की नौबत आ जाती यदि उन्होंने या उनके बच्चों ने गांव छोड़ा न होता।

यदि सरकार कह रही है कि किसानों की आय दोगुनी करनी है और इसके लिए नयी कानूनी व्यवस्थाएं आवश्यक हैं तो बिना जमीन पर कानून के उतरे हल्ला क्यों?

जब राजीव गांधी कम्प्यूटर ला रहे थे तब भी विरोध कम नहीं था। आज सबको मालूम है कि कंप्यूटर ने किस कदर सामान्य भारतीयों के जीवन को बदल दिया है।

जब नरसिंह राव आर्थिक उदारवाद ला रहे थे तब भी विरोध कम नहीं था। आज हम सब देख पा रहे हैं कि उसके कारण किस प्रकार तथाकथित २-३% का हिन्दू ग्रोथ रेट विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं से कंधा मिलाने में सफल रहा है।

जब वाजपेयी गठबंधन की सरकार बना रहे थे तब भी विरोध कम नहीं था। आज हम देख पा रहे हैं कि वह भारतीय लोकतंत्र की परिपाटी बन गया है। भाजपा अकेले बहुमत में होने के बाद भी गठबंधन की सरकार बनाकर केंद्र् में है।

जब सीएए लागू हुआ तब भी विरोध कम नहीं था। लेकिन कोई बताए कि कितने मुसलमानों की नागरिकता गयी अब तक ?

जब केजरीवाल का आंदोलन चला तब भी समर्थन कम नहीं था। लेकिन कोई बताए कि दिल्ली सरकार में लोकपाल का हाल क्या है ?

तो कैसे मान लिया जाय कि सड़क पर खड़े लोग सच समझकर ही सड़क पर खड़े हैं।

हर कानून के सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष होते हैं। आप इसे इस प्रकार भी समझ सकते हैं। दहेज के विरुद्ध एक कानून बना साठ के दशक में। उसके अनुसार दहेज लेना और देना दोनों अपराध है। अपराध की सजा भी तय है। किन्तु क्या कोई यह बता सकता है कि दहेज प्रथा क्यों नहीं बंद हुई ?

हत्या के विरुद्ध उम्र कैद और फांसी तक की सजा तय है कानूनन। क्या हत्याएं रुक गयीं?

भारत का संविधान १९५० में लागू हुआ। तब से लेकर अबतक सैंकडों संशोधन हो चुके हैं। आगे भी होंगे।

जिस देश की कानून निर्माण या उसमें बदलाव की पद्धति इतनी लचीली है वहां किसी कानून को रोकने के लिए एक ग़लत परिपाटी डाली जा रही है। यह शाहीन बाग में देखा गया था और आज किसान आंदोलन में भी देखा जा रहा है।

महत्त्वपूर्ण सड़कों को रोककर, हजारों की संख्या में जमा होकर, प्रशासन को नकारा बना, सरकार को भयभीत और विवश करने की कोशिश का यह तरीका कतई लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता।

शाहीन बाग से आज के किसान आंदोलन की तुलना से किसान देशद्रोही नहीं हो जाते। शाहीन बाग भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर एक मजहबी हमला था। वह कुंठित मुसलमानों का भड़ास था, जिसकी परिणति दिल्ली दंगों के रूप में हुई। शाहीन बाग को भी विपक्षी दलों का समर्थन था। एक मजहबी आंदोलन जो बीच में राजनीतिक होता हुआ दिखाई दिया, किन्तु अंततः मजहबी हो दम तोड गया।

किसान आंदोलन पूर्णतः राजनीतिक आंदोलन है। पंजाब में अमरेन्द्र सिंह और हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा मजबूत कांग्रेसी नेता हैं। उनकी राज्य संगठन पर मजबूत पकड़ है। पश्चिमी यूपी में अजीत सिंह भी खासी पैठ रखते हैं। ये वे नेता हैं जो दिल्ली के निकट के राज्यों से भी हैं और मोदी के कट्टर विरोधी भी। चालीस-पचास हजार की भीड़ जमा करना बहुत मुश्किल काम नहीं है।

जमा किसानों में पंजाब के किसानों की संख्या ८०% है। शेष अन्य राज्यो से हैं। यह बड़ा आंदोलन नहीं है। स्वत:स्फूर्त नहीं है। प्रायोजित है। लेकिन इसके इरादे राजनीतिक हैं और तरीका आलोचनीय।

इस देश में सालों भर चुनाव होते रहते। अभी-अभी बिहार का चुनाव खत्म हुआ है। निकट भविष्य में ही बंगाल का चुनाव भी है। यदि इस कानून से देश भर के किसान आहत हैं तो भाजपा स्वत: सरकार से बाहर हो जाएगी। क्या अन्य लोग इस बात से परिचित नहीं। यदि किसान सचमुच ही बहुत नाराज़ हैं और विपक्ष इसे जानता है तो वह कहता क्यों नहीं कि उनकी सरकार बनने पर वे इस कानून को बदल देंगे।

विपक्ष ने खुद किसानों के दरवाजे पर जाने की जगह चोर दरवाजा चुना है। कांग्रेस को अपने राष्ट्रव्यापी संगठन पर अब कोई भरोसा नहीं रहा। वह भाजपा के विरुद्ध उस माहौल की तलाश में है जिसके कारण २०१४ में यूपीए सरकार अपदस्थ हुई। इसी माहौल को गरमाने और इसका लाभ लेने को आतुर कांग्रेस कभी सीएए के विरोध में जाकर तो कभी तथाकथित किसान आंदोलन के समर्थन में सतही तौर पर आकर अपनी छीछालेदार करवाती रही है।

हमें सोचना होगा कि क्या हम बदलाव का प्रयोग करने से इतना घबरा गये हैं कि एक अनटेस्टेट कानून का विरोध करते हुए देश के हजारों करोड़ का नुक़सान सड़क पर जमावडा लगाकर कर दें!

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