Tuesday, September 17, 2024
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छुटकी की चिट्ठी, मां के नाम

लघु कथा

प्रकृति के आगमन से घर में यदि कोई बहुत ही उत्साहित था, कोई निश्चिंतता की पराकाष्ठा तक प्रसन्न था तो वह रुनझुन थी। मां खुश भी थी और नाराज़ भी। कभी गोद में हाथ-पांव फेंकती नन्हीं सी जान की ठोढ़ी पकड़ पुचकारती और कहती- तू आयी तो पापा प्रोफेसर हो गये। मां के मुस्कराते चेहरे को देख वह भी खिलखिला उठती। कभी मां ने हल्के से कान अमेठते हुए कहा- इधर आस-पास पापा को नहीं रख सकती थी। प्यार भरी इस झिड़की से नाराज़ बच्ची आसमान सर पर उठा लेती। इतना रोती, इतना रोती कि जब तक दादा मम्मी को डांट नहीं देते, चुप ही नहीं होती।

डांट-डपट की इस घटना से घर का माहौल और खुशनुमा हो उठता। अब तो हालात ये हो गये थे कि मम्मी को दादाजी से डांट खिलवानी हो तो प्रकृति को रुला दो। उसको रुलाने की अनेक विधा बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक ने विकसित कर ली थी। रुनझुन इसमें बहुत चतुर थी। वह एक टाफी प्रकृति को चटा देती और फिर उसे उसके सामने ही खाने लगती। बस फिर क्या था। प्रकृति के कोप के शिकार वातावरण में रोदन का वह स्वर गूंजता कि सब उसे मनाने में लग जाते। रुनझुन टाफी चटाती, मम्मी अपने दुग्ध भरे स्तन उसके मुंह लगाती, दादी चीनी के दाने मुंह में डालती। वह भला क्यों चुप हो। अंतत: दादाजी आते। मम्मी को डांटते और बच्ची चुप।

छ: महीने बीत गये। पापा मुंबई में अपनी गृहस्थी जमा रहे थे। कालेज में खासे लोकप्रिय हो रहे थे। क्लास से निकलते ही अर्दली ने एक लिफाफा थमा दिया। वह मम्मी के अक्षर को पहचानते थे। खासकर वह अपनी लिखावट में बिन्दी सदैव लाल रंग का डालती। वह कहती- यह देखते ही आपको मेरी याद जरूर आएगी। यह बिन्दी नहीं, मेरी मांग का सिन्दूर है जो मेरा भरोसा बन आपके कंधे पर टिका है।

पापा का मन किया उस लाल बिंदी को चूम लें। मन को तो मना लिया, लेकिन करतल उन बिन्दिओ़ सहलाने से न चूके। ओठो पर मधुर मुस्कान तैर आती। वे इधर-उधर भी देखते कि उनकी भावनाओं को कोई पढ़ तो नहीं रहा। वे चिट्ठी हाथ में लिए कुछ सोच में पड़े थे। अर्दली ने आवाज लगायी- सिंह साहब, प्रिंसिपल साहब बुला रहे हैं।

वे तेजी से प्रिंसिपल के आफिस की तरफ बढ़े। 20 मीटर गैलरी लांघने के बाद प्रिंसिपल के कमरे का सीसे का दरवाजा या। प्रिंसिपल ने इशारे से अंदर बुलाया। वे अंदर गये।

सिंह साहब, छ: महीने हो गये। आपका गांव जाने का मन नहीं करता?

जी, करता है। लेकिन मैं सोचता रहा कि पहले यहां सबकुछ ठीकठाक जम जाय, फिर गांव जाऊं।

मैनेजमेंट आपसे बहुत खुश हैं। आप यदि छुटृटी लेना चाहें तो ले सकते हैं। घूम आइये। बच्चों से मिल आइए।

पापा को लगा जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गयी हो। उस लाल बिंदी को सहलाते हुए सबसे पहला ख्याल भी तो यही आया था कि पंख होते तो उड़ जाता रे!

कालेज से घर कैसे पहुंचे, कुछ समझ न आया। धड़ाम से बेड पर पेट के बल लेट गये। लिफ़ाफा खोला। एक नन्हीं सी बच्ची की फूलों के बीच बैठी, खिलखिलाती तस्वीर थी। वह समझ गये-प्रकृति है। नीचे लिखा था- बेटी ने किस्सी भेजी है। जरा बताना तो कौन से फूल की खुशबू है।

पापा बोल उठे- गुलाबी।

और लगा किचेन से मम्मी बोली हो- सही जवाब!

वे मुस्कुरा उठे। चिट्ठी पढ़ना शुरु किया।

“मुन्नी के पापा,
नमस्ते!

आशा है आप स्वस्थ और प्रसन्न होंगे। मेरे सिवा यहां सब खुश हैं। माताजी मुझमें कमी निकाल-निकाल कर एक तरफ खुश रहती हैं, तो दूसरी तरफ कभी-कभी आपको याद कर भावुक भी हो उठती हैं। वैसे जब भी आपका जिक्र होता है, मैं तो प्रकृति को सीने से लगाकर आराम पा जाती हूं, लेकिन माताजी सारा क्रोध पिताजी पर उतारने के बाद थोड़ा मुझसे भी लड लेती हैं। उसके बाद रुनझुन को डांटती हैं। यदि इस बीच कोई मजदूर आ जाए तो मजाल है कि अंटी से पैसे निकलें। यह बात अलग है कि आजकल आपका नाम लेकर माताजी को खूब उल्लू बनाया जा रहा है। जैसे ही किसी ने कहा कि भैया बड़े आदमी बन गये हैं कि माताजी फ्लैट! आजकल एक लीटर दूध अपनी अलमारी में रखने लगी हैं। पहले तो मैंने ध्यान नहीं दिया। एक दिन दोपहर को देखती हूं कि रुनझुन और प्रकृति को कोने वाले घर में बंद कर पीट-पीट कर दूध पिलाया जा रहा है।

तो ऐसी हैं आपकी मम्मी प्रोफेसर साहब! मैं तो हंस-हंस कर दीवानी हो जाती हूं जब वह दृश्य सोचती हूं कि कैसे-कैसे अत्याचार हुए होंगे आपपर यह दूध पिलाने के लिए। आपका रुआंसा सा मासूम चेहरे की कल्पना कर आपके प्रेम में और डूब जाती हूं।

एक बात बताऊं…? प्रकृति छ: महीने की हो गयी है। वह जैसे-जैसे बड़ी हो रही है उसकी कुछ बातें आप जैसी होती जा रही हैं। उसकी नाक और आंखें तो खुलकर कहने लगी हैं कि पापा के हैं। जब वह होंठ बंद करती है तो लगता है भगवान ने आपके होठो को छोटा कर प्रकृति पर चिपका दिया हो। तब उसपर बहुत प्यार आता है।

इतनी नटखट है, इतनी नटखट है कि आप सुनोगे तो आप भी हंस पडोगे। सोचती हूं आकर ही देख लेना। दरअसल सुनी हुई बात को देखने में आनंद बंट जाता है। आपकी लाडली है, आकर ही देख लो।

एक शिकायत कर रही हूं इस नन्हीं सी जान की। जो चिट्ठी आप पढ़ रहे हो वह चौथी है। पहली जब लिख रही थी तब कूकर ने सीटी दी। मैं कूकर बंद करने गयी। इसी बीच में देवी जी उठीं, न रोयी, न हंसी, पंखे की हवा में, पेपरवेट से दबे खड-खड करते कागज को खींचकर चबाने लग गयीं। जबतक मैं आती तब तक मैडम का गाल एक तरफ से फूलकर हिमालय बन रहा था, तो उधर आंख और नाक से गंगा और जमुना बस निकलने ही वाली थी।

मेरी तो जान ही निकल गयी। मैंने किसी तरह मुंह में ऊंगली डाल कागज के चीथड़े निकाले। कमबख्त मुंह में उंगली डालने ही नहीं दे रही थी। कागज निकलते ही यूं जोर से रोई कि पिताजी ने खूब डांट लगाई मेरी। माताजी तो तभी से कहती जा रही हैैं- “मैंने प्रोफेसर साहब के पिताजी को समझाया था कि लड़की को ठीक से देख लो। अब नहीं देखा तो भुगतो। एक छ: मास की बच्ची नहीं संभलती इनसे। पता नहीं प्रोफेसर साहब का क्या होगा! मैं तो मास-दो मास की मेहमान हूं। भगवान भला करे।”

अपनी लाडली को तुरंत यहां से ले जाओ, वरना मुझसे बुरा कोई न होगा।

दूसरी चिट्ठी मैंने तकिया के नीचे संभालकर रखी थी। मैडमजी को वहीं सोती छोड़ मैं उसी कमरे के दरवाजे पर बैठ रमरतिया से जुंए निकलवा रही थी। न जाने कब मैडमजी का मन तकिये पर सोने का हो गया। वह आराम से तकिये पर दोनों हाथ लटकाते हुए सो रहीं थीं। इतनी क्यूट लग रही थी कि क्या बताऊं। जब पास गयी तो देखती हूं मैडम ने तकिया सहित आसपास के भू-भाग को जलाप्लावित कर रखा है। उसे उठाकर बीच बेड पर रखा। तकिया उठाते ही जो झटका लगा वह 440 वोल्ट का भी क्या लगता। चिट्ठी शर्म से सिकुड़ गयी थी और अक्षर-अक्षर ऐसे पुत गये थे जैसे आपकी लाडली अपनी आंखों के काजल का करती है।

मैं सच बता रही हूं, जी में आया उसे कूट दूं। आप ही बताइए, आपसे बर्दाश्त होता…? मैंने यह भी बर्दाश्त किया। तब भी माताजी को यही शिकायत रहती है कि मैं कुछ नहीं करती।

अब मैंने ठान लिया कि चिट्ठी ऐसी जगह रखूंगी जिसे ढूंढने के लिए इंद्र को भी हजार आंखें चाहिए। वहीं रखी थी जिसे आप अरावली पर्वतमाला कह मुझे चिढ़ाते हो। मुझे पूरा विश्वास था कि यहां वह पूरी तरह सुरक्षित है। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है। उसे दूध पिलाकर अपनी छाती पर उसे लिटा थपकी दे रही थी। उसे हल्की खांसी आयी, फिर उल्टी। गर्दन से ससरता हुआ उनका अमृत अरावली पर्वतमाला के मध्य मार्ग से जहां गयी वहां तो गयी ही, साथ में धो गयी मेरे अरमानों की चिट्ठी।

सच कहती हूं, इतना दुःख हुआ कि दिन भर खाना भी नहीं खाया। उसे भी दूध नहीं पिलाया। वह सारा दिन रोती रही। आज दादाजी की डांट के बाद भी वह चुप नहीं हुई। माताजी ने लाख कोशिश कर ली, रुनझुन ने टाफी दी। कुछ काम नहीं आया। आखिर मुझसे रहा न गया। न जाने क्या हो गया उसे। बच्चे भगवान का रूप होते हैं यह तो नहीं जानती मैं, लेकिन वे इतना भावुक हो सकते हैं आज देखकर जी भर आया। वह शायद मम्मी के कष्ट से आहत थी आज। मेरा दुःख उससे देखा नहीं जा रहा था शायद। चुप ही नहीं हो रही थी। मुझसे देखा न गया। उसे गोद मे उठा लायी। अपना दूध पिलाया। फिर उसे बगल में लिटा कर पूछा- गुडिया, पापा को एक चिट्ठी लिख लू..? उसने सूनी आंखों से मुझे देखा। ऊंअ करके अपना सर मेरी छाती से चिपकाया, उसने हाफी ली और सो गयी। फिर देर तक सोती रही।।

अब जाकर यह चिट्ठी पूरी हुई है। सच कहती हूं, मेरी प्रकृति से अधिक सुंदर कोई नहीं।

आपकै बिना जी नहीं लगता। कब आ रहे हो, जल्दी लिखना।

आपकी
छुटकी की मम्मी”

(लेखक/कवि संजय रिक्थ )

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